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छोटे कस्बों गांव की साइकिल जिंदगी का हिस्सा, अब बन गया किस्सा

यादों के झरोकों से, 80 के दशक तक छोटे शहरों और कस्बों में साइकिल का बड़ा चलन था, लोग अपनी जिंदगी को घर की एक साइकिल में चलते हुए नजर आते थे धीरे धीरे 90का दशक आते आते, यह दौर पीछे छूट गया

साभार _ एडवोकेट अमित वत्स

ऋषिकेश , 80 के दशक तक छोटे शहरों और कस्बों में साइकिल का बड़ा चलन था, लोग अपनी जिंदगी को घर की एक साइकिल में चलते हुए नजर आते थे धीरे धीरे 90का दशक आते आते, यह दौर पीछे छूट गया ओर हीरो पुक , बाइक ने साइकिल को लिविंग स्टेंडर से जोड़ दिया, एटलस कंपनी के साथ साथ अन्य कंपनिया भी धीरे धीरे काम समेटने लगी, ये सभी एक दौर के साथ आउट डेटेड होती चली गई ,

ऋषिकेश के एडवोकेट एवं सामाजिक कार्यकर्ता अमित वत्स ने 70और 80 के दशक की यादों को कुछ ऐसे खूबसूरत ढंग से शेयर किया कि यादें फिर से ताजा हो गई पहाड़ दस्तक आपके लिए आया है उस दौर की बचपन की यादें……

हमारे जमाने में साइकिल तीन चरणों में सीखी जाती थी ,
पहला चरण – कैंची
दूसरा चरण – डंडा
तीसरा चरण – गद्दी …
*तब साइकिल की ऊंचाई 24 इंच हुआ करती थी जो खड़े होने पर हमारे कंधे के बराबर आती थी ऐसी साइकिल से गद्दी चलाना मुनासिब नहीं होता था।*
*”कैंची” वो कला होती थी जहां हम साइकिल के फ़्रेम में बने त्रिकोण के बीच घुस कर दोनो पैरों को दोनो पैडल पर रख कर चलाते थे*।
और जब हम ऐसे चलाते थे तो अपना सीना तान कर टेढ़ा होकर हैंडिल के पीछे से चेहरा बाहर निकाल लेते थे, और *”क्लींङ क्लींङ” करके घंटी इसलिए बजाते थे ताकी लोग बाग़ देख सकें की लड़का साईकिल दौड़ा रहा है* ।
*आज की पीढ़ी इस “एडवेंचर” से महरूम है उन्हे नही पता की आठ दस साल की उमर में 24 इंच की साइकिल चलाना “जहाज” उड़ाने जैसा होता था*।
हमने ना जाने कितने दफे अपने *घुटने और मुंह तोड़वाए है* और गज़ब की बात ये है कि *तब दर्द भी नही होता था,* गिरने के बाद चारो तरफ देख कर चुपचाप खड़े हो जाते थे अपना हाफ कच्छा पोंछते हुए।
अब तकनीकी ने बहुत तरक्क़ी कर ली है पांच साल के होते ही बच्चे साइकिल चलाने लगते हैं वो भी बिना गिरे। दो दो फिट की साइकिल आ गयी है, और *अमीरों के बच्चे तो अब सीधे गाड़ी चलाते हैं छोटी छोटी बाइक उपलब्ध हैं बाज़ार में* ।
मगर आज के बच्चे कभी नहीं समझ पाएंगे कि उस छोटी सी उम्र में बड़ी साइकिल पर संतुलन बनाना जीवन की पहली सीख होती थी! *”जिम्मेदारियों” की पहली कड़ी होती थी जहां आपको यह जिम्मेदारी दे दी जाती थी कि अब आप गेहूं पिसाने लायक हो गये हैं* ।
*इधर से चक्की तक साइकिल ढुगराते हुए जाइए और उधर से कैंची चलाते हुए घर वापस आइए* !
और यकीन मानिए इस जिम्मेदारी को निभाने में खुशियां भी बड़ी गजब की होती थी।
और ये भी सच है की *हमारे बाद “कैंची” प्रथा विलुप्त हो गयी* ।
हम लोग की दुनिया की आखिरी पीढ़ी हैं जिसने साइकिल चलाना तीन चरणों में सीखा !
*पहला चरण कैंची*
*दूसरा चरण डंडा*
*तीसरा चरण गद्दी।*
● *हम वो आखरी पीढ़ी हैं*, जिन्होंने कई-कई बार मिटटी के घरों में बैठ कर परियों और राजाओं की कहानियां सुनीं, जमीन पर बैठ कर खाना खाया है, प्लेट में चाय पी है।
● *हम वो आखरी लोग हैं*, जिन्होंने बचपन में मोहल्ले के मैदानों में अपने दोस्तों के साथ पम्परागत खेल, गिल्ली-डंडा, छुपा-छिपी, खो-खो, कबड्डी, कंचे जैसे खेल खेले हैं

Krishna Rawat Dobhal

Awarded by Bjp mahila morcha on international women's day for the field of Journalism, Nari shakti samman by Mahila Ayog(2023),Gauradevi saman 2014,Journalist by profession, photography my passion Documentaries maker ,9 years experience in web media ,had internship with leading newspaper and national news channels, love my work BA(Hons) Mass Communication and Journalism from HNBGU Sringar Garhwal , MA Massa Communication and Journalism from OIMT Rishikesh

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