प्रकृति के श्रृंगार का उत्सव फूलदेई
फूलदेई त्यौहार -- गढ़वाल की एक ओर परम्परा ,सांस्कृतिक प्रदुषण का शिकार , पलायन की त्रासदी और युवाओं की अनदेखी से प्रकृति का त्यौहार पीछे छूटता जा रहा है
रिपोर्ट _कृष्णा रावत डोभाल
देहरादून, अगर आप पहाड़ से किसी न किसी रूप में जुड़े है तो आपको यहाँ कि संस्कृति -रीतिरिवाज के बारे में कभी न कभी सुनने और पढ़ने के लिए मिला होगा , पहाड़ शब्द अपने में तमाम पीड़ा और कठनाई को अपने आप में समेटे हुए है वही उल्लास और जीवंतता यहाँ कि नदियो -झरनो के साथ इंसान के खून में भी बहती है ,यही कारण ने यहाँ के तीज – त्यौहार पहाड़वासियों की सभी परेशानियो को दूर करके यहाँ के लोगो के जीवन में नए रक्त का संचार कर जाते है ।
उत्तराखंड के सुदूर गढ़वाल का कुछ ऐसा ही एक त्यौहार है फूल देई का त्यौहार , जिस में प्रकर्ति और इंसान का अदभुत जुड़ाव है ,चैत का महीना पहाड़ो में प्रकर्ति के श्रृंगार का महीना है जब पहाड़ो के कण- कण में नए अंकुर अपनी अदभुत छठा बिखरेते है , बर्फ से ढकी पहाड़ो – बुग्यालों पर रंग -बिरगे फूलो कि एक चादर बिछने लग जाती है , पहाड़ के लोग , ख़ास कर बच्चे या लड़किया अपनी प्रकर्ति के आचल से फूलो को टोकरी में इकठा कर अपने गावो के हर घर कि देहरी यानि दरवाजे पर सजा देते है खासकर फ्योली के नेचुरल फूलो को और ये सिलसिला पुरे 9 दिनों तक चलता है , गांव के सभी लोग इन बच्चो को पुरस्कार के रूप में खाने कि वस्तुएं देते है जिस लेकर ये सभी बच्चे एक सामूहिक भोज करते है असल में ये त्यौहार प्रकर्ति के श्रृंगार का और उसकी नेमत का धन्यवाद करने का है ,इस उत्सव के लिए कई लोक गीत भी बने है जो बेहद ही लोकप्रिय है।
उत्तराखंड में लोगो का प्रकर्ति अपने जल-जंगल और जमीं से अटूट रिश्ता है लेकिन पहाड़ो पर बढ़ रहे सांस्कृतिक प्रदूषण और पलायन कि त्रासदी ने यहाँ कि नयी पीढ़ी को उनकी जड़ो से काट दिया है , आज इक्का – दुक्का गावो को छोड़ कर कही भी इस त्योहारो को मानाने के लिए नयी पीढ़ी में उत्साह नहीं है एक ऐसा त्यौहार आज बदलते सामाजिक सरोकारो और टीवी, इंटरनेट -कम्यूटर जरनेशन के चलते विलुप्ति के कगार पर है , ना ढोल दमाऊ ना लोक गीत और न ही उत्साही लड़किया अब गावो में बची है जो इस त्यौहार को मना सके ,न तो उत्तराखंड कि संस्कृति के ठेकेदार और न ही संस्कृति विभाग कि फौज उत्तराखंड कि विलुप्त हो संस्कृति को बचाने के लिए ठोस कदम उठा रही है।
इसका खामियाजा आने वाले समय में प्रकति के असंतुलन के रूप में सामने आएगा , जब मानव और प्रकर्ति का परस्पर संबंध नहीं होगा और सिर्फ दोहन ही होंगे तब क्या होगा ,उस समय इस तरह के रीती रिवाजो और त्योहारो को मानाने कि परम्परा याद आएगी। लेकिन तब तक देर बड़ी हो जायेगी।
फूलदेई के नाम से प्रसिद्ध उत्तराखंड ही नहीं पूरे देश का यह पहला बाल पर्व व संसार का एकमात्र ऐसा उत्सव है जिसकी शुरुआत तो नौनिहाल करते हैं लेकिन समापन बड़े बुजुर्ग के हाथों से होता है. इस पर्व को महानगरो में पहचान दिलाने के लिए कुछ युवा उत्तराखंडी अपनी कोशिशो में लगे हुए है, वे इसे राजकीय पर्व के रूप में मनाने की वकालत करते हैं. आखिर हो भी क्यों नहीं! यह संसार का एक मात्र ऐसा बाल उत्सव है जो भारतीय संवत्सर की शुरुआत भी करता है और फूलों को भी महत्तता प्रदान करता है. ये पहाड़ी जनमानस के भी बाल-ग्वाल हैं जिन्होंने पूरी देश दुनिया को फूलों की महत्तता समझाते हुए इन्हें देव चरणों में अर्पित करने की कला सिखाई है. एकमात्र गुलाब ही फुलदेई का ऐसा पुष्प जिसे पूर्व में घर की देहरियों में अर्पित नहीं किया जाता था और न ही मंदिरों में चढ़ाया जाता था. आज भी गुलाब जैसा पुष्प पहाड़ी अंचलों में परित्याज्य माना जाता है.
पहाड़ दस्तकलाइव की आप सभीसे अपील है कि इस त्योहार को अपने घर के बच्चों को जरूर बताएं और अपने घर की देहरी को फूलो से जरूर सजाए, ताकि हमारी संस्कृति हमारी नईपीढ़ी को प्रकृति प्रेम से जोड़ सके, आप सभी सुधि पाठको पहाड़ दस्तक की ओर से प्रकृति के प्रेम के इस उसव की हार्दिक शुभकामनाएं ।