चुनाव की स्याही ने पूरे किए 60 वर्ष
उंगली पर नीले रंग का निशान बन चुका है मतदान की पहचान
कृष्णा रावत डोभाल
ऋषिकेश ,जब कल 14 फरवरी को आप मतदान करने जाएंगे तो मतदान कक्ष में वोटिंग से पहले पीठासीन अधिकारी आपकी उंगली में एक निशान लगाता है एक विशेष तरह की स्याही का नीला निशान जिसे मिटाना मुश्किल होता है क्या आप जानते हैं इस नीली स्याही के निशान का इतिहास, क्यों भारतीय मतदान में इसका उपयोग होता है और कहां से यह स्याही बनकर आती है हर साल आप निशान तो लगाते हैं लेकिन इसके इतिहास को जानने की कोशिश आपने आज तक नहीं करी ,कोई बात नहीं आज हम आपको बताते हैं आखिर मतदान की निशानी कहां से बनकर तैयार होती है और कब से चुनाव में इसका उपयोग किया जा रहा है
चुनावी स्याही के निशान इतिहास
भारतीय चुनाव में इस्तेमाल होने वाली स्याही को लगभग 60 वर्ष का समय लगाते हुए हो गया है इसे बनाने वाली कंपनी का दावा है कि यह स्याही निशान लगभग 15 दिनों से पहले नहीं मिट सकता
1937 में कर्नाटक के मैसूर में वाडियार राजवंश के शासक महाराज कृष्णराज वाडियार ने मैसूर लेक एंड पेंट नाम की फैक्ट्री लगाई , इस कंपनी में पेंट और वार्निश बनाने का काम होता था आजादी के बाद इस फैक्टरी पर कर्नाटक राज्य सरकार का अधिकार हो गया 1989 किस फैक्ट्री का नाम बदलकर मैसूर पेंट एंड वार्निश लिमिटेड कर दिया गया।
इस फैक्टरी ने 1962 में ऐसी स्याही का निर्माण किया जो पानी या केमिकल से नहीं मिट सकती थी , सन 1962 में हुए चुनाव में पहली बार इस स्याही का इस्तेमाल किया गया इसकी गुणवत्ता को देखते हुए लगातार होने वाले चुनाव में इस स्याही का उपयोग किया जा रहा है जो आपकी उंगली में एक नीला निशान वोट डालने के बाद छोड़ देती है
स्याही आम आदमी को लोकतंत्र के महापर्व से जोड़ती है और जनता को यह उनके नेता चुनने का अधिकार देती है बिना किसी गड़बड़ी के
आखिर क्यों पड़ी इस स्याही की जरूरत है
आजाद मुल्क मरने के बाद भारत में पहली बार चुनाव 1951 _52 में हुए थे उस समय उंगली पर स्याही लगाने का नियम नहीं था लेकिन लगातार मिल रही शिकायतों को देखते हुए एक बार से अधिक वोट डालने वालों की संख्या भी बढ़ने लगी जिस पर काबू पाने के लिए चुनाव आयोग ने इस स्याही का उपयोग करके एक ही बार वोट डालने की परंपरा को आगे बढ़ाया आज इस शाही के निशान में लोकतंत्र के महापर्व में अपने 60 सालों का सफर तय कर लिया है जो बदस्तूर जारी है