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पृथ्वी दिवस_पर्यावरण संतुलन है जरूरी

विकास और विनाश एक सिक्के के दो पहलू हैं क्योंकि नुकसान हमेशा पर्यावरण का होता आ रहा है जिससे पृथ्वी का संतुलन बिगड़ता जा रहा है , मौसम परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाएं इसका सटीक उदाहरण है आइए अपनी पृथ्वी को बचाने के लिए कुछ कदम तो हम उठाएं

 

चिंतन रिपोर्ट_ हरीश भट्ट

पृथ्वी दिवस पर विशेष
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इंसानी जिद में दफन हो गए पेड़

गर्मियों की उमस भरी दोपहरी में मानसून का इंतजार. ईंट गारे से चीनी गई दीवारों के बीच कुर्सी पर बैठकर आंगन में लगे एक अदद जामुन के पेड़ को याद करना, काश वह पेड़ न काटा गया होता, तो कमरा गर्म न होता. जामुन खाने को मिलते वो अलग. उस पेड़ को काटने की वजह सिर्फ एक ही थी, उससे झड़ने वाले पत्तों से होने वाली गंदगी. बस सब कुछ साफ-सुथरा सा दिखे. बस इसलिए उस फलदार व छायादार पेड़ को काट दिया गया. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी की तर्ज पर न रहेगा पेड़ न रहेगी गंदगी. और न ही हल्ला-गुल्ला. हल्ला-गुल्ला इसलिए कि गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों का जामुन के पेड़ के इर्द-गिर्द ही रहना कि कब जामुन गिरे और हमको खाए. न गिरे तो उनको तोड़ने की जुगत लगाना. उसके लिए कभी लंगड बनाना तो कभी लंबे डंडे में कील फंसा कर जामुन से लदी डाल तक पहुुंचने की कोशिश में चिल्लाना. इस बीच पड़ोस में गांव से किसी मेहमान का आना और उसका ये कहना कि पेड़ पर चढ़कर ही जामुन तोड़ दे क्या, तो समझो जन्नत ही मिल गई. फिर क्या आनन-फानन में जामुन ढेर लग जाना. फिर किसकी गर्मी किसकी परवाह. बस कटोरियों में जामुन और बच्चों का हल्ला. जब तक पेड़ रहा तब तक बच्चों में गर्मियों में अलसुबह उठने की आदत बनी रही. इसका कारण था कि रात में गिरने वाले जामुनों को समेटने की ललक. जो सबसे पहले उठता था वो दिन अपने इकट्ठे किए जामुनों को दिखा-दिखाकर दिन भर बच्चों को चिढ़ाया करता था. इस सबसे अलग पेड़ की छांव में लूडो, सांप-सीढ़ी या कैरम खेलने में जो मजा आता था, वो अब कमरे में पंखे के नीचे बैठकर कम्प्यूटर गेम खेलने या मोबाइल चलाने में कहां है.

पेड़ काटकर हमने अपना घर-आंगन तो साफ-सुथरा कर लिया, लेकिन मन को अशांत करने के साथ ही वायु को भी दूषित कर दिया. वनडे स्टाइल में शुद्ध हवा-पानी के लिए पहाड़ों की सैर से क्या फायदा. लेकिन बिगड़ते पर्यावरण के चलते मानसून के आने की टाइमिंग भी गडबड़ा सी गई है. ऐसे में सिर्फ विद्युत कटौती होने से बस पेड़ का ही सहारा था, लेकिन वो भी नहीं है.
एक पेड़ जब मन को इतना सुकून दे सकता है, खाने को फल, गर्मी से राहत और शुद्ध वायु तो हरे-भरे पेड़ों पटा जंगल इंसानों को कितनी राहत दे सकता है. लेकिन हर कोई अपना फायदा ही देखता है इंसान ने जंगल काट दिए अपने फायदे के लिए तो प्रकृति ने कहर बरपा दिया अपने विस्तार के लिए. जब इंसानी इच्छाओं पर रोक नहीं लगाई जा सकती तो नदियों के बहाव को कैसे रोका जा सकता है, परिणामस्वरूप जब नदिया अपने रौद्र रूप में आती है तो गांव-गांव के बह जाते है उसके बहाव में, शहर के शहर डूब जाते है उसकी गहराई में. अंधाधुंध विकास की दौड़ में नदियों पर बांध बनाना, पहाड़ों में सुरंगों का निर्माण, जंगलों में स्मार्ट सिटी के प्रोजेक्ट को मूर्त रूप देना, हाईटेक होने के लिए मोबाइल टॉवर्स के जरिए हवा में रेडिएशन फैलाना मानव जीवन को कहां ले जाएगा, इस सवाल का जवाब तो आने वाले समय में ही मिलेगा. लेकिन फिलहाल बदलते और प्रदूषित होता पर्यावरण आज इतना भयानक रूप ले चुका है कि आए दिन दुनिया भर से भूंकप, बाढ़, तूफान की खबरे आती रहती है, जिसमें लाखोें करोड़ों की क्षति के साथ हजारों इंसानों को मौत की नींद सो जाते है. ऐसा क्यों हो रहा है इसके लिए अपने गिरेबां में झांक कर देखने की जरूरत है कि जब पेड़ ही नहीं होगे तो पानी, वर्षा और वायु प्रदूषण का खतरनाक खामियाजा इंसान को ही चुकाना होगा.
आज महानगरों में सांस लेने के लिए शुद्ध हवा तक मयस्सर नहीं है, शहर की सड़कों पर बेतरतीब ढंग से दौड़ते वाहनों से निकलता काला धुंआ इंसानी जिंदगी को काला ही करता जा रहा है. कंक्रीट के जंगलों के लिए पेड़ों को दफन करके हाउसिंग प्रोजेक्ट को मंजूरी और हाइवे के चौड़ीकरण के लिए पेड़ों को कटान के चलते पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा गया है. साथ ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नदियों पर बांध बनाने के पहाड़ों को काटना. हमने विकास के लिए हर संभव कोशिश की, लेकिन प्राणवायु देने वाले पेड़ों को बचाने के लिए सेमिनार और जागरूकता अभियानों से आगे कुछ नहीं. अगर समय रहते नहीं चेते तो आने वाले समय में हमारे देश में भी चीन जैसे हालात हो जाएंगे, जहां सांस लेने के लिए भी पॉलीथिन में हवा खरीदनी होगी. यूं भी पीने का पानी तो बोतलों में खरीदा ही जा रहा है. सिर्फ एक दिन झंडे उठाने या सेमिनार करने भर से पर्यावरण को शुद्ध नहीं किया जा सकता है. इसके लिए ईमानदारी से धरातल पर काम करने की आवश्यकता है, सेमिनार, जागरूकता अभियान अपनी जगह सही हो सकते है, पर इससे भी ज्यादा जरूरी है अपने घर-आंगन में लगे पेड़-पौघों को कटने से बचाना. अगर बूंद-बूंद करके घड़ा भरता है तो पेड़ दर पेड़ बचाकर भी पर्यावरण को बचाने में सहयोग दिया जा सकता है.

Krishna Rawat

Journalist by profession, photography my passion Documentaries maker ,9 years experience in web media ,had internship with leading newspaper and national news channels, love my work BA(Hons) Mass Communication and Journalism from HNBGU Sringar Garhwal , MA Massa Communication and Journalism from OIMT Rishikesh

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